Friday, November 19, 2010

आंसू

सोचता हु की ये आंसू न होते तो क्या होता?
दर्द पे दर्द देती दुनिया और ये न रोते तो क्या होता?
होता क्या?
होता यही की इन्सान टूट कर चूर हो जाता
डूबकर अपने गम में खुशियों से दूर हो जाता.
हँसता कोई जलाकर उसे कहीं
और वह घुट घुट कर एक दिन मर जाने को मजबूर हो जाता.

सीने का दर्द कभी सीने से पर नहीं होता,
मर ही जाता इन्सान उसके जीने का कोई आसार नहीं होता,
भला है ये आंसू बह जाएँ भले
क्योकि ज़माने में गम भुलाने का कोई और आधार नहीं होता.

न निकलता अगर ये गम, आँखों से पानी बनकर
मर ही जाता बेचारा इन्सान अपने ग़मों की कहानी बनकर.

काश इन आंसुओ की कोई जुबान होती,
काश इनकी खुदा से कोई पहचान होती,
तो ये आंसू खुदा से अपने ग़मों की फरियाद करते,
बर्बाद किसी गुलिस्ते को, सिचकर फिर से आबाद करते.

मगर ये रोते हैं चुपचाप, सुनसान कही अकेले में,
तन्हाई चीज क्या है, झेलते हैं खरे ये मेले में.

गिरो के गम पे आंसू, निकलते नहीं हैं ओट से
ये रोते हैं क्योकि डरते हैं, केवल अपनों की चोट से.

या खुदा तू इन आंसुओ को कभी बेकार मत करना
जो रुलाते हैं दूसरों को बेमतलब,
तू उनकी दुआ कोई स्वीकार मत करना.

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